कहाँ नाज़िल हुई: | मक्का |
आयतें: | 40 verses |
पारा: | 30 |
नाम रखने का कारण
दूसरी आयत के वाक्यांश “उस बड़ी ख़बर (अन-नबा) के बारे में” के शब्द ‘अन-नबा’ को इसका नाम दिया गया है और यह केवल नाम ही नहीं है, बल्कि विषय-वस्तु की दृष्टि से इस सूरह की वार्ताओं का शीर्षक भी है, क्योंकि ‘नबा’ (ख़बर) से अभिप्राय कयामत और आख़िरत (प्रलय और परलोक) की ख़बर है और सूरह में सारी वार्ता इसी पर की गई है।
अवतरणकाल
सूरह 75 ( कयामत) से सूरह 79 (नाज़िआत) तक सभी सूरतों की विषय-वस्तु मिलती जुलती है और ये सब मक्का मुअज्ज़मा के प्रारम्भिक काल की अवरित मालूम होती हैं।
विषय और वार्ता
इसका विषय है क़यामत और आख़िरत की पुष्टि और उसको मानने या न मानने के परिणामों से लोगों को सावधान करना। मक्का मुअज़्ज़मा में जब पहले-पहल अल्लाह के रसूल (सल्ल0) ने इस्लाम के प्रचार का आरम्भ किया तो वह तीन चीज़ों पर आधारित थाः (ऐकश्वरवाद, हज़रत मुहम्मद (सल्ल0) की पैग़म्बरी और आख़िरत।
इन तीनों चीज़ों में से पहली दो चीजें भी) यद्यपि मक्का वालों को अत्यन्त अप्रिय (और अग्राह्य थीं, किन्तु फिर भी स्पष्ट कारणों से ये उन) के लिए उतनी ज़्यादा उलझन का कारण न थीं, जितनी तीसरी बात थी।
उसको जब उनके सामने पेश किया गया तो उन्होंने सबसे ज़्यादा उसी की हँसी उड़ाई। किन्तु इस्लाम की राह पर उनको लाने के लिए यह बिल्कुल अवश्यम्भावी था कि आखिरत की धारणा उनके मन में उतारी जाए, क्योंकि इस धारणा को स्वीकार किए बिना यह सम्भव ही न था कि सत्य और असत्य के मामले में उनके सोचने के ढंग में गंभीरता आ सकती।
यही कारण है कि मक्का मुअज़्ज़मा के प्रारम्भिक काल की सूरतों में ज़्यादा ज़ोर आख़िरत की धारणा को दिलों में बिठाने पर दिया गया है।
इस काल खण्ड की सूरतों में आख़िरत के विषय की इस पुनरावृति का कारण भली-भाँति समझ लेने के पश्चात् अब इस सूरह की वार्ताओं पर एक निगाह डाल लीजिए।
इसमें सबसे पहले उन चर्चाओं और अटकल बाज़ियों की ओर संकेत किया गया है जो कयामत की खबर सुन कर मक्का की हर गली और बाज़ार और मक्का वालों की हर बैठक में हो रही थीं। इसके बाद इन्कार करने वालों से पूछा गया है कि क्या तुम्हें धरती से लेकर आकाश तक का प्रकृति का कारखाना और उसमें पाई जाने वाली हिकमतें और सोद्देश्यता दिखाई नहीं देतीं?
इसकी सारी चीज़ें क्या तुम्हें यही बता रही हैं कि जिस सर्वशक्तिमान ने इनको पैदा किया है उसकी शक्ति कयामत लाने और आख़िरत को अस्तित्व प्रदान करने में असमर्थ है ? और इस पूरे कारखाने में जो पूर्ण श्रेणी की तत्त्वदर्शिता और बुद्धिमत्ता स्पष्टतः क्रियाशील क्या उसको देखते हुए तुम्हारी समझ में यह आता है कि इस कारखाने का एक-एक अंश और इसकी एक-एक क्रिया तो सोद्दश्य है, किन्तु खुद पूरे का पूरा कारखाना निरुद्देश्य है?
आखिर इससे अधिक व्यर्थ और निस्सार बात क्या हो सकती है कि कारखाने में मनुष्य को पेशकार के पद पर नियुक्त करके उसे यहाँ अत्यन्त में विस्तृत अधिकार तो दे दिए जाएँ, किन्तु जब वह अपना कार्य पूरा करके यहाँ से विदा हो तो उसे यूं ही छोड़ दिया जाए, न काम बनाने पर पेंशन और इनाम, न बिगाड़ने पर पूछ-गछ और दण्ड?
यह प्रमाण देने के पश्चात् पूरे ज़ोर के साथ कहा गया है कि फैसले का दिन निश्चय ही अपने निश्चित समय पर आ कर रहेगा। तुम्हारा इन्कार इस घटना को घटित होने से नहीं रोक सकता।
इसके बाद आयत 21 से 30 तक बताया गया है कि जो लोग हिसाब-किताब की आशा नहीं रखते और जिन्होंने हमारी आयतों को झुठला दिया है, उनकी एक-एक करतूत गिन-गिन कर हमारे यहाँ लिखी हुई है और उनकी ख़बर लेने के लिए नरक घात लगाए हुए तैयार है।
फिर आयत 31 से 36 तक उन लोगों को उत्तम प्रतिदान वर्णित हुआ है जिन्होंने अपने आपको ज़िम्मेदार और उत्तरदायी समझ कर संसार में अपना परलोक सुधारने की पहले ही चिन्ता कर ली है।
अन्त में ईश्वरीय न्यायालय का चित्रण किया गया है कि वहाँ किसी के अड़ कर बैठ जाने और अपने आश्रितों को क्षमादान दिला कर मुक्त करने का क्या प्रश्न, वहाँ तो कोई बिना अनुमति के ज़बान तक न खोल सकेगा, और अनुमति भी इस शर्त के साथ मिलेगी कि जिसके हक में सिफारिश की अनुमति हो, केवल उसी के लिए सिफारिश करे और सिफारिश में कोई अनुचित बात न कहे।
तदाधिक सिफारिश की अनुमति केवल उनके हक में दी जाएगी जिन्होंने दुनिया में सत्य वचन को माना और गुनहगार हैं। ईश्वर के विद्रोही और सत्य से इन्कार करने वाले किसी सिफारिश के पात्र न होंगे।
फिर वार्ता का समापन इस चेतावनी पर किया गया है कि जिस दिन के आने की ख़बर दी जा रही है उसका आना सत्य है, उसे दूर न समझो, वह निकट ही आ लगा है, (जो आज उसके इनकार पर तुला बैठा है, कल) वह पछता-पछता कर कहेगा कि क्या ही अच्छा होता कि मैं दुनिया में पैदा ही न होता। उस समय उसका यह एहसास उसी दुनिया के प्रति होगा, जिस पर आज वह लट्टू हो रहा है।