नाम रखने का कारण
पहली ही आयत के शब्द “अस-साफ्फात (पैर जमाकर पंक्तिबद्ध होने वालों की सौगन्ध)” से उद्धृत है।
अवतरणकाल
वार्ताओं और वर्णन-शैली से प्रतीत होता है कि यह सूरह सम्भवतः मक्की काल के मध्य में, बल्कि शायद इस मध्यकाल के भी अन्तिम समय में अवतरित हुई हैं। (जब विरोध पूर्णतः उग्र रूप धारण का चुका था।)
विषय और वार्ता
उस समय नबी (सल्ल.) के एकेश्वरवाद और परलोकवाद के आहवान का उत्तर जिस उपहास और हँसी-मज़ाक के साथ दिया जा रहा था और आपके रिसालत के दावे को स्वीकार करने से जिस ज़ोर के साथ इन्कार किया जा रहा था, उसपर मक्का के काफिरों को अत्यंत ज़ोरदार तरीके से चेतावनी दी गई है।
और अन्त में उसे स्प रूप से सावधान कर दिया गया है कि शीघ्र ही यही पैग़म्बर जिसका तुम मज़ाक उड़ा रहे हो, तुम्हारे देखते-देखते तुम पर विजय प्राप्त कर लेगा और तुम अल्लाह की सेना को स्वयं अपने घर के परांगण में उतरी हुई पाओगे (आयत 171 से 179 तक)।
यह नोटिस उस समय दिया गया था जब नबी (सल्ल.) की सफलता के लक्षण दूर-दूर तक कहीं दिखाई नहीं देते थे। बल्कि देखनेवाले तो यह समझ रहे थे कि यह आन्दोलन मक्का की घाटियों ही में दफ़न होकर रह जाएगा।
लेकिन 15-16 वर्ष से अधिक समय नहीं बीता था कि मक्का की विजय के अवसर पर ठीक वही कुछ सामने आ गया, जिससे काफिरों को सावधान किया गया था।
चेतावनी के साथ-साथ अल्लाह ने इस सूरह में समझाने-बुझाने और प्रेरित करने का हक़ भी पूर्ण सन्तुलन के साथ अदा किया है। एकेश्वरवाद और परलोकवाद की धारणा के सत्य होने पर संक्षिप्त, दिल में घर करनेवाले प्रमाण प्रस्तुत किए हैं।
बहुदेववादियों की (धारणाओं पर आलोचना करके बताया गया है कि वे कैसी-कैसी निरर्थक बातों पर ईमान लाए बैठे हैं, इन गुमराहियों के बुरे परिणामों से अवगत कराया गया है और यह भी बताया गया है कि ईमान और अच्छे कर्म के परिणाम कितने प्रतिष्ठा पूर्ण हैं। फिर (इसी सिलसिले में पिछले इतिहास के उदाहरण दिये हैं।)
इस उद्देश्य से जो ऐतिहासिक किस्से सूरह में इस बयान किए गए हैं, उनमें सबसे अधिक शिक्षाप्रद हज़रत इबराहीम (अलै.) के पवित्र जीवन की यह महत्त्वपूर्ण घटना है कि वे अल्लाह का एक संकेत पाते ही अपने इकलौते बेटे को कुर्बान करने पर तैयार हो गए थे।
इसमें केवल कुरैश के उन काफ़िरों ही के लिए शिक्षा न थी जो हज़रत इबराहीम (अलैहि.) के साथ अपने वंशगत सम्बन्ध पर गर्व करते फिरते थे, बल्कि उन मुसलमानों के लिए भी शिक्षा थी जो अल्लाह और उसके रसूल पर ईमान लाए थे।
इस घटना का वर्णन करके उन्हें बता दिया गया कि इस्लाम की वास्तविकता और उसकी वास्तविक आत्मा क्या है। सूरह की अंतिम आयतें केवल काफिरों के लिए चेतावनी ही न थीं, बल्कि उन ईमानवालों के लिए भी विजयी और प्रभावी होने की शुभ-सूचना थी जो नबी (सल्ल.) के समर्थन और आपकी सहायता में अत्यन्त हतोत्साहित करनेवाली परिस्थितियों का मुक़बाला कर रहे थे।