सूरह जुखरूफ “Az-Zukhruf”
कहाँ नाज़िल हुई: | मक्का |
आयतें: | 89 verses |
पारा: | 25 |
नाम रखने का कारण
आयत 35 के शब्द ‘वज्जुखरुफन’ (चाँदी और सोने के) से उद्धृत है। मतलब यह है कि यह वह सूरह है जिसमें जुखरुफ शब्द आया है।
अवतरणकाल
इसकी वार्ताओं पर विचार करने से साफ महसूस होता है कि यह सूरह भी उसी कालखण्ड में अवतरित हुई है, जिसमें सूरह 40 (अल-मोमिन), सूरह 41 (हा. मीम. अस-सज्दा) और सूरह 42 (अश-शूरा) अवतरित हुई। (यह वह समय था जब मक्का के काफिर नबी (सल्ल.) की जान के पीछे पड़े हुए थे।
विषय और वार्ताएँ
इस सूरह में बड़े ज़ोर के साथ कुरैश और अरबवालों की उन अज्ञानपूर्ण धारणाओं और अन्धविश्वासों की अलोचना की गई है जिनपर वे दुराग्रह किए चले जा रहे थे और अत्यन्त मज़बूत और दिल में घर करनेवाले तरीके से उनके बुद्धिसंगत न होने को उजागर किया गया है।
वार्ता का आरम्भ इस तरह किया गया है कि तुम लोग अपनी दुष्टता के बल पर यह चाहते हो कि इस किताब का अवतरण रोक दिया जाए, किन्तु अल्लाह ने दुष्टताओं के कारण नबियों को भेजना और किताबों को उतारना बन्द नहीं किया है, बल्कि उन ज़ालिमों को विनष्ट कर दिया है जो उनके मार्गदर्शन का रास्ता रोक कर खड़े हुए थे।
यही कुछ वह अब भी करेगा। इसके बाद बताया गया है कि वह धर्म क्या है जिसे लोग छाती से लगाए हुए हैं, और वे प्रमाण क्या हैं जिसके बलबूते पर वे मुहम्मद (सल्ल.) का मुकाबला कर रहे हैं।
ये स्वयं मानते हैं कि धरती और आकाश का, और इनका अपना और इनके उपास्यों का स्रष्टा (भी और इनका दाता भी) सर्वोच्च अल्लाह ही है फिर भी दूसरों को अल्लाह के साथ प्रभुत्व में शरीक करने पर हठ किए चले जा रहे हैं।
बंदों को अल्लाह की संतान घोषित करते हैं और (फरिश्तों के विषय में) कहते हैं कि ये अल्लाह की बेटियाँ हैं। उनकी उपासना करते हैं। आखिर इन्हें कैसे मालूम हुआ कि फ़रिश्ते स्त्रियाँ हैं?
इन अज्ञानपूर्ण बातों पर टोका जाता है तो नियति का बहाना पेश करते हैं और कहते हैं कि यदि अल्लाह हमारे इस काम को पसन्द न करता तो हम कैसे इन मूर्तियों की पूजा कर सकते थे।
हालाँकि अल्लाह की पसन्द और नापसन्द मालूम होने का माध्यम उसकी किताबें हैं, न कि वे कार्य जो संसार में उसकी मशीयत (उसकी दी हुई छूट) के अन्तर्गत हो रहे हैं।