कहाँ नाज़िल हुई: | मक्का |
आयतें: | 28 verses |
पारा: | 29 |
नाम रखने का कारण
“नूह” इस सूरह का नाम भी है और विषय की दृष्टि से इसका शीर्षक भी, क्योंकि इसमें प्रारम्भ से अन्त तक हज़रत नूह (अलै0) ही का किस्सा बयान किया गया है।
अवतरणकाल
यह भी मक्का मुअज़्ज़मा के आरम्भिक काल की अवतरित सूरतों में से है, जब अल्लाह के रसूल (सल्ल0) के आह्वान और प्रचार के मुकाबले में मक्का के काफ़िरों का विरोध बड़ी हद तक प्रचण्ड रूप धारण कर चुका था।
विषय और वार्ता
इसमें हज़रत नूह (अलै0) का किस्सा मात्र कथा वाचन के लिए बयान नहीं, किया गया है, बल्कि इससे अभिष्ट मक्का के काफिरों (इन्कार करने वालों) को सावधान करना है कि तुम मुहम्मद (सल्ल0) के साथ वही नीति अपना रहे हो जो हज़रत नूह (अलै0) के साथ उनकी जाति के लोगों ने अपनाई थीं।
इस नीति को तुम ने त्याग न दिया तो तुम्हें भी वही परिणाम देखना पड़ेगा जो उन लोगों ने देखा था। पहली आयत में बताया गया है कि हज़रत नूह (अलै0) को जब अल्लाह ने पैगम्ब के पद पर आसीन किया था, उस समय क्या सेवा उन्हें सौंपी गई थी।
आयत 2 से 4 तक में संक्षिप्त रूप से यह बताया गया है कि उन्होंने अपने आह्वान का आरम्भ किस तरह किया और अपनी जाति के लोगों के समक्ष क्या बात रखी।
फिर दीर्घकालों तक आह्वान एवं प्रसार के कष्ट उठाने के पश्चात् जो वृत्तान्त हज़रत नूह (अलै0) ने अपने प्रभु की सेवा में प्रस्तुत किया, वह आयत 5 से 20 तक में वर्णित है।
तदान्तर हज़रत नूह (अलै0) का अन्तिम निवेदन आयत 21 से 25 तक में अंकित है जिसमें वे अपने प्रभु से निवेदन करते हैं कि यह जाति मेरी बात निश्चित रूप से रद्द कर चुकी है। अब समय आ गया है कि इन लोगों को मार्ग पाने के दैवयोग से वंचित कर दिया जाए।
यह हज़रत नूह (अलै0) की ओर से किसी अधैर्य का प्रदर्शन न था, बल्कि सैकड़ों वर्ष तक अत्यन्त कठिन परिस्थितियों में सत्य के प्रचार के कर्तव्य का निर्वाह करने के पश्चात् जब वे अपनी जाति के लोगों से पूर्णतः निराश हो गए तो उन्होंने अपनी यह धारणा बना ली कि अब इस जाति के सीधे मार्ग पर आने की कोई सम्भावना शेष नहीं है।
यह विचार ठीक-ठीक वही था जो स्वयं अल्लाह का अपना निर्णय था। अएतव संसर्गतः इसके पश्चात् आयत 25 में कहा गया है कि उस जाति पर उसकी करतूतों के कारण ईश्वरीय यातना अवतरित हुई।
अन्त की आयतों में हज़रत नूह (अलै0) की वह प्रार्थना प्रस्तुत की गई है जो उन्होंने ठीक यातना के उतरने के समय अपने प्रभु से की थी।
इसमें वे अपने लिए और सब ईमान वालों के लिए मुक्ति की प्रार्थना करते हैं, और अपनी जाति के काफिरों के विषय में अल्लाह से निवेदन करते हैं कि उनमें से किसी को धरती पर बसने के लिए जीवित न छोड़ा जाए, क्योंकि उनमें अब कोई भलाई शेष नहीं रही। उनके वंशज में से जो भी उठेगा, काफिर और दुराचारी ही उठेगा।