मुसलमान मांसाहारी क्यों होते हैं | क्या मांसाहारी भोजन लोगों को हिंसक बनाता है?


परम्परागत रूप से मानवता दो स्रोतों से प्राप्त होने वाले भोजन पर आधारित रही है। एक तरफ खेत और बाग-बगीचे से और दूसरी तरफ पशुओं से, जो मूल रूप से मवेशियों से प्राप्त किया जाता है और पानी में रहने वाले कुछ अन्य जीवधारियों से भी।

जो लोग केवल पौधों से अपना भोजन प्राप्त करके जीवन व्यतीत करते हैं उन्हें शाकाहारी कहा जाता है, जबकि वह लोग अपना पोषण पौधों के अतिरिक्त जानवरों से भी प्राप्त करते हैं उन्हें मांसाहारी कहा जाता है।

भोजन करने के आधार पर एक अन्य संवर्ग है जिसे अंग्रेजी में वेगन (Vegan) कहा जाता है। यह लोग प्रत्येक उस भोजन से परहेज करते हैं जो पशुओं से प्राप्त होते हैं जैसे दूध, शहद, अंडे और दूध के अन्य उत्पाद ।

पिछले वर्षों में शाकाहार और अंग्रेजी शब्द वेगनाइज्म विश्वव्यापी आंदोलन बन गए हैं। इनका आधार पशु अधिकारों के सम्मान के सिद्धांत पर आधारित है और यह लोग प्रत्येक उस चीज़ से परहेज करते हैं जिसके परिणामस्वरूप पशुओं की हत्या होती है। इसलिए वह उनसे किसी तरह लाभ प्राप्त करने से बचते हैं ।

एक मुसलमान पूर्ण शाकाहारी होने के बावजूद एक अच्छा मुसलमान हो सकता है। मांसाहारी होना एक मुसलमान के लिए ज़रूरी नहीं है।

भौगोलिक कारण

ईसाई धर्म और यहूदी धर्म की तरह इस्लाम ऐसे भू भाग पर पैदा हुआ और ऐसे समाज में पैदा हुआ जो मौलिक रूप से खेती करता था या देहाती था।

इन तीनों धर्मों के पैगम्बरों की लम्बी कतार है जो फिलिस्तीन जैसी भूमि के आसपास आए और ऐसी जमीन पर विकसित हुए जो अधिकतर सूखी हुई थी और जहां पशु चराना और उनका पालन-पोषण करना लोगों का मुख्य व्यवसाय था ।

इन तीनों धर्मों के अनुयायियों को विरासत में ऐसी पोषण परम्परा मिली जो लोग अधिकतर पशु प्रोटीन पर आधारित थे। ऐसा नहीं था कि इन धर्मों ने पशुओं का शिकार करना और उनकी हत्या करना अनिवार्य कर दिया था और मांस को उनके भोजन का मुख्य अंग बनाया था।

दूसरा, अधिकतर धर्मों में पशुओं को खाने के लिए ज़बह करना पूर्णतः स्वीकार्य माना जाता है। फिर भी कुछ धर्म ऐसे हैं जो इसे यदि क्रूरता नहीं तो अनैतिक अवश्य समझते हैं ।

भोजन की आदतों का सम्बन्ध दयालुता और सहानुभूति से नहीं है। कोई व्यक्ति मांसाहारी होने के बावजूद दयालु और सहानुभूति रखने वाला हो सकता है और इसके विपरीत एक व्यक्ति पूर्ण रूप से शाकाहारी होकर भी निर्दयी हो सकता है।

तीसरे, आधुनिक शोधों से सिद्ध हो गया है कि पौधों में भी जीवन होता है और वह दर्द महसूस करते हैं और वह संगीत और इस तरह के अन्य बाह्य प्रभावों के प्रति प्रतिक्रिया भी व्यक्त करते हैं और वह सुख और दुख का अनुभव करते हैं और पानी के लिए रोते हैं।

अमेरिकी किसानों ने ऐसी मशीनों का आविष्कार किया है जो पौधों के उस समय रोने की आवाज को बढ़ाते हैं जब उन्हें पानी की आवश्यकता होती है और वे सिंचाई के ऐसे यंत्र का निर्माण करने का प्रयास कर रहे हैं जो इस तरह पौधों के रोने से सक्रिय हो जाए।

इस्लामी सिद्धांत इस दर्शन पर आधारित है कि मनुष्य धरती पर सर्वोच्च प्राणी है जिसे धरती के सभी स्रोतों से लाभ उठाने और उनका उपयोग करने की क्षमता और अनुमति दी गयी है।

यह ठीक है कि उसे यह आदेश दिया गया है कि उन स्रोतों का इस प्रकार उपयोग करें कि वह नष्ट न हों । आधुनिक कथन के अनुसार स्रोतों के इस प्रकार उपयोग को संरक्षित उपयोग (sustainable use) कहा जाता है अर्थात स्रोतों का इस प्रकार प्रयोग करना कि प्रकृति, प्राकृतिक प्रक्रिया द्वारा उन स्रोतों की परिपूर्ति कर सके ।

इस्लामी दर्शन मनुष्य से यह चाहता है कि वह धरती की सभी चीजों का संरक्षक बने जो धरती में हैं और जिन्हें धरती पैदा करती है।

वह इनके स्वामी न बनें । इनका स्वामी केवल अल्लाह है और मनुष्य इनका संरक्षक मात्र है। अतः संरक्षक को पूरी ईमानदारी से काम करना चाहिए और इन स्रोतों का केवल आवश्यकता पड़ने पर ही प्रयोग करना चाहिए ।

अपनी लालच की पूर्ति करने के लिए उनको एकत्र नहीं करना चाहिए ।

कुरान कहता हैः

“ऐ ईमान लाने वालो ! प्रतिबन्धों (प्रतिज्ञाओं समझौतों ) आदि का पूर्णरूप से
पालन करो । तुम्हारे लिए चौपायों की जाति के जानवर हलाल हैं सिवाय उनके
जो तुम्हें बताए जा रहे हैं ।”

(कुरान, 5:1)

एक दूसरी जगह पर कुरान कहता है:

“और निश्चय ही तुम्हारे लिए चौपायों में भी एक शिक्षा है। उनके पेटों में जो
कुछ है उसमें से हम तुम्हें पिलाते हैं । और तुम्हारे लिए उनमें बहुत-से फायदे
हैं और उन्हें तुम खाते भी हो ।”

(कुरान, 23:21)

मांस प्रोटीन से भरपूर

पोषण के विशेषज्ञ इस बात से सहमत हैं कि मांस या जंतु प्रोटीन पूर्ण पोषक होता है और यह उन आठ आवश्यक अमीनो अम्लों की पूर्ति करता है जिनका शरीर में संश्लेषण किया जाता है और जिनका भोजन में होना आवश्यक है।

मांस में आयरन, विटामिन बी- और नियासिन भी होते हैं । मात्र पौधों पर आधारित भोजन प्रोटीन की गंभीर कमी पैदा करता है और जिससे एनीमिया हो सकती है जिससे भारत की सामान्य आबादी ग्रसित है। इस आबादी को प्रोटीन पर आधारित पोषक तत्व पर्याप्त रूप में नहीं मिलते ।

मनुष्य के दांत काटने और चबाने दोनों के लिए उपयुक्त है

अपने मुँह की अंदरूनी बनावट पर एक दृष्टि डालने से भी मालूम हो जाता है कि मनुष्य को ऐसे दांत दिए गए हैं जो काटने और चबाने दोनों के लिए उपयुक्त है ।

अतः एक मनुष्य प्रकृति द्वारा मांसाहारी और शाकाहारी दोनों बनाया गया है । लेकिन इसी तरह यदि पशुओं का अवलोकन किया जाए तो पता चलेगा कि मवेशियों के पास केवल चपटे दाँत होते हैं, जो चबाने के लिए ही उपयुक्त होते हैं ।

जंगली जानवरों के पास केवल नुकीले काटने वाले दांत होते हैं। जो शिकार को फाड़ने और काटने के लिए उपयुक्त होते हैं।

इससे यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि मनुष्य से दोनों तरह के आहार खाने की आशा की जा सकती है अर्थात; पौधों पर आधारित और मवेशियों पर आधारित । इसी तरह मानव पाचन तंत्र भी शाकाहारी और मांसाहारी दोनों प्रकार के भोजन को पचाने की क्षमता रखता है।

पौधों को भी पीड़ा होती है

कुछ धर्मो ने शुद्ध शाकाहार को अपना लिया क्योंकि वे पूर्ण रूप से जीव-हत्या के विरुद्ध हैं। अतीत में लोगों का विचार था कि पौधों में जीवन नहीं होता। आज यह विश्वव्यापी सत्य है कि पौधों में भी जीवन होता है । अतः जीव-हत्या के संबंध में उनका तर्क शुद्ध शाकाहारी होकर भी पूरा नहीं होता।

वे आगे तर्क देते हैं कि पौधे पीड़ा महसूस नहीं करते; अतः पौधों को मारना जानवरों को मारने की अपेक्षा कम अपराध है। आज विज्ञान कहता है कि पौधे भी पीड़ा अनुभव करते हैं परंतु उनकी चीख़ मनुष्य के द्वारा नहीं सुनी जा सकती है।

इसका कारण यह है कि मनुष्य में आवाज सुनने की अक्षमता जो श्रुत सीमा में नहीं आते अर्थात 20 हर्टज से 20,000 हर्ट्ज तक इस सीमा के नीचे या ऊपर पड़ने वाली किसी भी वस्तु की आवाज़ मनुष्य नहीं सुन सकता है।

एक कुत्ते में 40,000 हर्ट्ज तक सुनने की क्षमता है। इसी प्रकार खामोश कुत्ते की ध्वनि की लहर संख्या 20,000 से अधिक और 40,000 हर्ट्ज से कम होती है।

इन ध्वनियों को केवल कुत्ते ही सुन सकते हैं, मनुष्य नहीं । एक कुत्ता अपने मालिक की सीटी पहचानता है और उसके पास पहुँच जाता है।

अमेरिका के एक किसान ने एक मशीन का आविष्कार किया जो पौधे की चीख को ऊँची आवाज़ में परिवर्तित करती है जिसे मनुष्य सुन सकता है। जब कभी पौधे पानी के लिए चिल्लाते तो उस किसान को इसका तुरंत ज्ञान हो जाता है।

वर्तमान के अध्ययन इस तथ्य को उजागर करते हैं कि पौधे भी पीड़ा, दुख और सुख का अनुभव करते हैं और वे चिल्लाते भी हैं।

क्या मांसाहारी भोजन लोगों को हिंसक बनाता है?

यह सही है कि आदमी जो कुछ खाता है उसका प्रभाव उसके व्यवहार पर पड़ता है। यह भी एक कारण है जिसकी वजह से इस्लाम मांसाहारी जानवरों जैसे-शेर, बाघ, चीता आदि हिंसक पशुओं के मांस खाने को हराम (निषेध) ठहराता है। 

ऐसे जानवरों के मांस का सेवन व्यक्ति को हिंसक और निर्दयी बना सकता है । इस्लाम केवल शाकाहारी जानवर जैसे-भैंस, बकरी, भेड़ आदि शांतिप्रिय पशु और सीधे-साधे जानवरों के गोश्त खाने की अनुमति देता है।

इस्लाम भोजन और आहार के लिए कुछ नियम देता है । वह शाकाहारी पशुओं का मांस खाने की अनुमति देता है, विशेष रूप से आठ वर्गों के चौपायों (वह पशु जो दूध देने वाला और चार पैर वाला होता है) को और मांसाहारी जानवरों को खाने से मना करता है।

इस्लाम जिन पशुओं को खाने की अनुमति देता है उनमें गाय, बकरी, भेड़, मेंढ़ा, ऊँट, भैंस इत्यादि सम्मिलित हैं । यही नहीं, बल्कि इन हलाल जानवरों को हलाल तरीके से ज़बह भी किया जाना चाहिए।

वह दरिन्दे जो खाने के लिए दूसरे जानवरों का शिकार करते हैं वह हलाल नहीं है । यहाँ तक कि शाकाहारी पशुओं में से कुछ पशु जैसे सुअर मुसलमानों और यहूदियों के लिए हराम हैं ।

इस बात के लिए कोई वैज्ञानिक साक्ष्य नहीं है कि मांसाहार लोगों को अधिक हिंसक बनाता है। जैसा कि पहले बताया जा चुका है किसी मनुष्य का पालन-पोषण और संसार के बारे में उसका दृष्टिकोण उसे हिंसक अथवा शान्तिप्रिय बनाता है।

उदाहरण के लिए जर्मन नेता एडोल्फ हिटलर शाकाहारी था । परन्तु वह अपने अन्दर खतरनाक और बुरी महत्वाकांक्षाएँ, अर्थात पड़ोसी राष्ट्रों को अधीन करना, पाले हुए था और वास्तव में वह लाखों लोगों की हत्या के लिए जिम्मेदार था ।

अतः इस तरह की मनगढ़ंत बातों को घृणा पूर्वक रद्द करने की आवश्यकता है। क्योंकि ये मिथक इसी के अधिकारी हैं । प्रेम और सहानुभूति तथा घृणा और शत्रुता को खाने की आदतों से जोड़ने की आवश्यकता नहीं । भारत के आदिवासी अनेक प्रकार के जानवरों के मांस खाते हैं लेकिन उनके बारे में क्रूरता का रिकॉर्ड नहीं मिलता ।

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