इस्लाम में सब्र और उसका तरीक़ा / Islam Me Sabr Aur Uska Tarika

ये अल्लाह तआला की बड़ी नेमत व दौलत है, जो वह अपने खास नेक व मोमिन बन्दों को अता फरमाता है। क़ुरआने करीम में सत्तर से ज्यादा मुक़ामात पर सब्र की फजीलत का ऐलान किया गया है। नागवार चीज़ो पर सब्र बहुत बेहतर चीज़ है और अल्लाह तआला का इर्शाद है:

ऐ ईमान वालो मदद चाहो सब्र वह नमाज़ के ज़रिये, बेशक अल्लाह तआला सब्र करने वालो के साथ है। इस्लाम में सब्र की बड़ी फ़जीलत आई है, अल्लाह का कोई काम बेमकसद नहीं होता। अगर हम सब्र से काम लेते है, तो वह हम से खुश होगा और आखिर में अच्छे से अच्छा बदला भी देगा। और यह बात उन ही को नसीब होती है, जो बर्दाश्त करने वाले है और उन्ही लोगो को हासिल होती है जो बड़े साहिबे-नसीब है। 

नफ़्स को दीन की बात पर पाबंद रखना और दीन के खिलाफ उससे कोई काम न होने देना, इसको सब्र कहते हैं और इसके कई तरीके हैं। 




एक मौक़ा यह है कि आदमी चैन अम्न की हालत में हो। अल्लाह ताआला ने सेहत दी हो। माल व दौलत, इज्जत व आबरू,  नौकर-चाकर आल-औलाद, घर-बार, साज-सामान दिया हो, ऐसे वक्त का सब्र यह है कि दिमाग खराब न हो, अल्लाह ताआला को न भूल जाए, गरीबों को हक़ीर न समझे उनके साथ नमी और एहसान करता रहे।


दूसरा मौक़ा इबादत का वक्त है कि उस वक्त नफ़्स सुस्ती करता है, जैसे नमाज के लिए उठने में या नफ्स कंजूसी करता है जैसे जकात-ख़ैरात देने में। ऐसे मौके पर तीन तरह का सब्र चाहिए


एक इबादत से पहले कि नीयत दुरुस्त रखे। अल्लाह ही के वास्ते वह काम करे, नफ्स की कोई गरज न हो। 


दूसरे इबादत के वक्त कि कम-हिम्मती न हो। जिस तरह इबादत का हक है, उसी तरह अदा करे।


तीसरे इबादत के बाद कि उसको किसी के सामने जिक्र न करे।


तीसरा मौका गुनाह का वक्त है। उस वक्त का सब्र यह है कि नपस को गुनाह से रोके।


चौथा मौका वह वक्त है कि उस शख्स को कोई मख्लूक़ तकलीफ पहुंचाए, बुरा-भाल कहे। उस वक्त का सब्र  यह है कि बदला न ले खामोश हो जाए।


पांचवां मौका मुसीबत, बीमारी, माल के नुक्सान या किसी करीब अजीज के मर जाने का है। उस वक्त का सब्र  यह है कि जुबान शरा के खिलाफ कलमा न कहे बयान करके न रोये । तरीक़ा सब क्रिस्म के सब्रो का यह है कि इन सब मौकों के सवाब को याद कर ले और समझे कि ये सब बात मेरे फ़ायदे के वास्ते हैं और सोचे कि बे-सब्री  करने से तकदीर तो टलती नहीं, ना-हक सवाब भी क्यों खोया जाए।

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