नमाज़ी की नमाज़ का असर सारे जहान पर पड़ता है

जिस तरह बच्चे के रोने का असर पूरे घर के माहौल पर पड़ता है इसी तरह नमाज़ी की नमाज़ का असर सारे जहान पर पड़ता है। वारिश न होने की सूरत में नमाज़े इस्तसना पढ़ना, सूरज ग्रहण के वक़्त नमाज़े कसूफ़ पढ़ना और चांद ग्रहण के वक्त नमाज़े खसून पढ़ना इसकी वाजेह दलील है।



इंसानी ज़िंदगी के मुख़्तलिफ़ मराहिल का औक़ाते-नमाज़ के साथ खुसूसी मुनासिबत है। जैसे :

1. नमाज़े फ़ज़ को बपचन के साथ मुनासिबत है। (दिन की इब्तिदा

होती है।)

2. नमाज़े जुहर को जवानी के साथ मुनासिबत है। (सूरज अपने उरूज पर होता है।)

3. नमाज़े अस्र को बुढ़ापे के साथ मुनासिबत है। (दिन ढल जाता है।) 

4. नमाज़े मगरिब को मौत के साथ मुनासिबत है। (जिंदगी का सूरज डूब जाता है।)

5. नमाज़े इशा को अदम के साथ मुनासिबत है। (इंसान का दुनिया से
 नाम व निशान मिट जाता है ।)

इसलिए नमाज़े इशा को सलस-लैल तक पढ़ना मुस्तहब है। चूंकि रौशनी का नाम व निशान मिट जाता है, और रात के बाद फिर दिन होता है, इसी लिए क़ियामत के दिन का तल्किरा है।

यौमुद्दीन और यौमुल क्रियामह के अल्फ़ाज़ इस्तेमाल किए गए हैं। लैलुल-क्रियामह नहीं कहा गया। ( नमाज़ के असरार व रमूज़, पेज 83)

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